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सबसे बड़ा दानी

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 *सबसे बड़ा दानी*

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एक बार की बात है, कि श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे। रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी.से पूछा कि हे प्रभु! एक जिज्ञासा है, मेरे मन में, अगर आज्ञा हो तो पूछूँ ?


श्री कृष्ण जी ने कहा,अर्जुन! तुम मुझ से बिना किसी हिचक, कुछ भी पूछ सकते हो। 


तब अर्जुन ने कहा कि मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है। कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ, परंतु सभी लोग कर्ण को ही सब से बड़ा दानी क्यों कहते हैं? 


यह प्रश्न सुन कर श्री कृष्ण जी मुस्कुराये और बोले कि आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शांत करूंगा।


श्री कृष्ण जी ने पास की ही दो स्थित पहाड़ियों को सोने का बना दिया। इस के बाद वह अर्जुन से बोले कि "हे अर्जुन" इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस पास के गाँव वालों में बांट दो। 

@msrishtey

अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरंन्त ही यह काम करने के लिए चल दिया। 


उस ने सभी गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा कि वह लोग पंक्ति बना लें। अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना शुरू कर दिया।


 गाँव वालों ने अर्जुन की खूब जय जयकार करनी शुरू कर दी। अर्जुन सोने को पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए। लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बांटते रहे। 


उन मे अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। इतने समय पश्चात अर्जुन काफी थक चुके थे। जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में जरा भी कमी नहीं आई थी। 


उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि अब मुझ से यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए, प्रभु ने कहा कि ठीक है! तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण को बुला लिया।


उन्होंने कर्ण से कहा कि इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बांट दो। कर्ण तुरंत सोना बांटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उन से कहा यह सोना आप लोगों का है, जिस को जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये। ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।


 अर्जुन बोले कि ऐसा विचार मेरे मन में क्यों नही आया? 


इस पर श्री कृष्ण जी ने जवाब दिया, कि तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुम खुद यह निर्णय कर रहे थे, कि किस गाँव वाले की कितनी जरूरत है। उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हे दे रहे थे। 


तुम में दाता होने का भाव आ गया था, दूसरी तरफ कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि उनके सामने कोई उन की जय जय-कार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं, उस से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता।

@मैढ़ स्वर्णकार रिश्ते

यह उस आदमी की निशानी है, जिसे आत्मज्ञान हांसिल हो चुका है। इस तरह श्री कृष्ण ने खूब-सूरत तरीके से अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया, अर्जुन को भी उसके प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।


 दान देने के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना भी उपहार नहीं सौदा कहलाता है।


*यदि हम किसी को कुछ दान या सहयोग करना चाहते हैं। तो हमे यह कार्य बिना किसी उम्मीद या आशा के करना चाहिए। ताकि यह हमारा सत्कर्म हो, ना कि हमारा अहंकार।*


*बड़ा दानी वही है जो बिना किसी इच्छा के दान देता है और जब वह दान देता है। तो यह नहीं चाहता, कि कोई मेरी जय जयकार करें। वह तो सिर्फ दान देता है, बदले में उसे और कुछ नहीं चाहिए होता। जो दान देने में ऐसा भाव रखता है, वही असली दान देने वाला कहलाता है।*


*महात्मा भी सत्संगो में यही फरमाते हैं, कि असली दानी वही है जो दान देते वक्त एक हाथ से दान देता है, तो दूसरे हाथ को पता नहीं चलने देता।*


ध्यान

 .                


               *ध्यान*


 एक साधु एक वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे । वो रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काट कर ले जाते देखते थे। एक दिन उन्होंने लकड़हारे से कहा कि सुन भाई, दिन-भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती । तू जरा आगे क्यों नहीं जाता, वहां आगे चंदन का जंगल है । एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा ।


गरीब लकड़हारे को विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है ! जंगल में लकड़ियां काटते-काटते ही तो जिंदगी बीती । यह साधु यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा ? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो ! फिर झूठ कहेगा भी क्यों ? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है । कभी बोला भी नहीं इसके पहले । एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है ।


साधु के बातों पर विश्वास कर वह आगे गया । लौटा तो साधु के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है । मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी । मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था । हम यही जलाऊ-लकड़ियां काटते-काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या ! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही । तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी ।

मैं भी कैसा अभागा ! काश, पहले पता चल जाता ! साधु ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है । जब जागा तभी सबेरा है । दिन बड़े मजे में कटने लगे । एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन साधु ने कहा ; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी । जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए ; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है ? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है ?


उस साधु ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है । लकड़ियाँ-वकरियाँ काटना छोड़ो । एक दिन ले आओगे, दो-चार छ: महीने के लिए हो गया । अब तो वह साधु पर भरोसा करने लगा था । बिना संदेह किये भागा । चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या ! चांदी ही चांदी थी ! चार-छ: महीने नदारद हो जाता । एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता ।

लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है । साधु ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझे ही तुम्हें जगाना पड़ेगा । आगे सोने की खदान है मूर्ख ! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं ? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है । जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता ?


उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा ? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था । साधु ने कहा, थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है । फिर और आगे हीरों की खदान है । और ऐसे कहानी चलती है । और एक दिन साधु ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया ? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे । उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो । अब हीरों के आगे क्या हो सकता है ?

उस साधु ने कहा, हीरों के आगे मैं हूं । तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा ! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा ?


वह आदमी रोने लगा । फ़कीर के चरणों में सिर पटक दिया । कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं, मुझे यह सवाल ही नहीं आता । तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है । यह ख्याल तो मेरे जन्मों-जन्मों में नहीं आ सकता था । कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है । साधु ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है । अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं । अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है ।

यही बात सन्त महात्मा कहते हैं : और आगे, और आगे, चलते ही जाना है । उस समय तक मत रुकना जब तक कि सारे अनुभव शांत न हो जाएं । परमात्मा का अनुभव भी जब तक होता रहे, समझना दुई मौजूद है, द्वैत मौजूद है, देखनेवाला और दृश्य मौजूद है । जब वह अनुभव भी चला जाता है तब निर्विकल्प समाधि की अवस्था आती है । तब दृश्य नहीं बचता, न द्रष्टा ही बचता, जब कोई भी नहीं बचा, एक सन्नाटा है, एक शून्य है और उस शून्य में जलेगा असल सत्य बोध का दीया। वही परम पद है । वही परम-दशा है, वही समाधि 


मनुष्य जीवन का उद्देश्य

 *मनुष्य जीवनका ऊदेश्य*


*"मनुष्य शरीर धारण करना और मनुष्यताको धारण करना दोनों में बहुत अंतर है।"*

        *"मनुष्य शरीरको धारण किए हुए तो इस पृथ्वी पर करोड़ों व्यक्ति हैं। परंतु मनुष्यताको धारण करने वाले, उनकी तुलनामें बहुत ही कम लोग हैं।"*

        आप सोचेंगे, कि *"मनुष्य शरीरको धारण करनेमें और मनुष्यताको धारण करनेमें क्या अंतर है?"*

संसारमें लाखों प्रकारके प्राणी हैं। गाय घोड़े हाथी बंदर कुत्ते गधे मनुष्य आदि। ये सब योनियां उनके पूर्व जन्मोंके कर्मों का फल है। *"जिस आत्माने पूर्व जन्ममें अच्छे कर्म किए, उसको ईश्वरने मनुष्य जन्म दिया। जिसने अच्छे कर्म नहीं किए, उसे ईश्वरने पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा आदि शरीर दिया।"*

लाखों योनियोंमें केवल मनुष्य योनि ही सबसे उत्तम मानी जाती है और है भी। *"क्योंकि उसे ईश्वरने बहुत सी विशेष सुविधाएं दी हैं। जैसे कि ईश्वरने मनुष्योंको बहुत अच्छी बुद्धि दी है। बोलनेके लिए भाषा दी है। कर्म करनेके लिए दो हाथ दिए हैं। कर्म करनेकी स्वतंत्रता भी दी है और चार वेदोंका ज्ञान भी दिया है। ये सारी सुविधाएं अन्य प्राणियों को नहीं दी।"* 

इन सब सुविधाओंके कारण मनुष्य अन्य प्राणियोंकी तुलना में बहुत अधिक सुखी है। इससे पता चलता है कि *"उसने पूर्व जन्ममें अच्छे कर्म किए। इसलिए उसे सुख देने वाली ये सब विशेष सुविधाएं दी गई।" "अतः मनुष्य शरीर धारण करना बहुत कठिन है। बहुत पुण्य कर्म करने पर ही यह मिलता है।"*

यह तो बात हुई पिछले जन्म के कर्मों के फल की। 

*"अब मनुष्य जन्म धारण करने जैसा कठिन काम करके भी, इस जन्ममें सब लोग मनुष्यताको धारण नहीं कर पा रहे। क्योंकि यह उससे भी अधिक कठिन है।"* 

जैसे कि ईश्वरने जो मनुष्योंको कर्म करनेकी स्वतंत्रता दी है। अब इस जन्ममें मनुष्य लोग इस स्वतंत्रताका बहुत अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं। 

*"जैसे झूठ बोलना छल कपट करना धोखा देना अन्याय करना अत्याचार करना दूसरोंका शोषण करना इत्यादि बुरे कर्म कर रहे हैं।"*

        *"जब ऊपर बताई बुद्धि, हाथ, कर्म करनेकी स्वतंत्रता आदि सारी सुविधाओंका कोई व्यक्ति सदुपयोग करता है, अच्छे काम करता है, स्वयं सुखी रहता है, तथा दूसरोंको भी सुख देता है। सबके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करता है। किसीके साथ अन्याय नहीं करता। किसीका शोषण नहीं करता। किसी पर अत्याचार नहीं करता। तो इन्हीं गुणोंको धारण करनेका नाम 'मनुष्यता' है।"*

अब संसारमें सत्य यही है, कि *"मनुष्य शरीरको धारण करनेवाले तो करोड़ों व्यक्ति हैं। परन्तु इस मनुष्यताको धारण करने वाले लोग बहुत कम दिखते हैं। क्योंकि इस प्रकारसे जीवन जीना बहुत कठिन है।"* 

"कठिन भले ही हो फिर भी असंभव नहीं है। कुछ बुद्धिमान तथा पुरुषार्थी लोग इस कठिन तपस्याको करते हैं और मनुष्यताको धारण करके स्वयं भी सुखसे जीते हैं तथा दूसरोंको भी सुख देते हैं।"*

         *"आप सबको भी इस 'मनुष्यता' को धारण करनेका पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए, जिससे कि आपका यह जन्म भी उत्तम सुखदायक हो और अगला भी।"*


#कहानी , #काम_की_बात

लार की उपयोगिता

 लार की उपयोगिता 


*लार दुनिया की सबसे अच्छी ओषधि है ।इसमे औषधीय गुण बहुत अधिक है ।किसी चोट पर लार लगाने से चोट ठीक हो जाती है। लार पैदा होने में लग्भग एक लाख ग्रन्थिया काम करती है। जब कफ अधिक बढ़ा हो तभी आप थूक सकते है अन्यथा लार कभी थूकना नही चाहिए । सुबह की लार बहुत क्षारीय होती है । इसका PH 8.4 के आस पास होता है ।*


*पान बिना कत्था सुपारी और जर्दे (तम्बाकू)के खाना चाहिये जिससे उसकी लार थूकना ना पड़े । कत्था औ जर्दा से कैंसर हो सकता है इसलिए इसकी लार अंदर नही लेना चाहिये । गहरे रंग की वनस्पतिया कैंसर , मधुमेह ,अस्थमा ,जैसी बीमारियों से बचाती है। पान कफ और पित्त दोनो का नाश करता है।चुना वात का नाश करता है ।जिस वनस्पति का रंग जितना अधिक गहरा हो वह उतनी बड़ी ओषधि मानी गई है।*


*देशी पान (गहरे रंग वाला जिसका स्वाद कैसेला हो) गेंहू के दाने बराबर चुना मिलाए ,सौंफ मिलाए ,अजवायन डाले, लौंग ,बड़ी इलायची ,गुलकंद मिलाकर खाये* 



*ब्रह्म मुहूर्त अर्थात सुबह की लार उठते ही लार को थूकना नही चाहिये बल्कि इसे अंदर निगलना चाहिये ।यह बाकी के समय से अधिक लाभप्रद होती है।*


*शरीर के घाव जो किसी दवा से ठीक ना हो रहे हो उस पर बासी मुँह की लार यानी सुबह उठते समय जो लार मुंह मे हो लगानी चाहिये। जख्म बहुत जल्द भरने लगेगा 15 दिन से 3 महीने में जख्म पूर्ण ठीक हो जाएगा ऐसा मानते है। गैंगरीन जैसी बीमारी लार लगाने से 2 साल में ठीक हो जाएगी। जानवर भी जीभ द्वारा चाटकर अपने जख्मो को ठीक कर लेते है ।*


*लार में वही 18 पोषक तत्व होते है जो मिटटी में पाए जाते है। शरीर पर कैसे भी दाग धब्बे हो सुबह की लार लगाने से ठीक होने लगते है। एक्जिमा सोरायसिस जैसी बीमारी भी सुबह की लार से ठीक हो सकती है इसका परिणाम एक साल में देखने को मिल जाता है।*


*सुबह की लार आंखों में लगाने /डालने से आंखों की रौशनी बढ़ती है और आंखों के चश्मे उतर सकते है। आँखे लाल होने पर लार लगाने से 24 घण्टे में ठीक हो जाती है। सुबह सुबह की लार ,आंखे टेढ़ी हो अर्थात आंखों में भैंगापन की बीमारी को ठीक सही कर देती है।*


*आंखों के नीचे काले धब्बे होने पर सुबह की लार लगाए । सुबह उठने के आधे घण्टे बाद लार में मौजूद क्षार तत्व कम होने लगता है*



*सुबह दातून नीम ,बबूल की दातुन करने से दांतो की सेहत अच्छी एवं इसकी लार अंदर लेने से शरीर को लाभ मिलता है केमिकल युक्त टूथपेस्ट लार को सुखा देता है अतः इनसे बचना चाहिये*

नई सुबह

 *नई सुबह*


          कितनी खूबसूरत सुबह थी,  चारों तरफ हरियाली, फूलों का एक छोटा सा खूबसूरत बाग ,ठंडी शुद्ध हवा ,चिड़ियों की चहचहाहट,  एक गहरी साँस ली रवि ने  , एक अलौकिक आत्मिक आनन्द प्राप्त हो रहा हो जैसे ।

कितना अच्छा लग रहा था दादा जी के गाँव में ।इतना तरो ताजा , इतना खुशनुमा वातावरण शायद पहले कभी नहीं देखा था उसने।

प्रकृति के सौन्दर्य से कितना दूर रहा था न अब तक ।कितनी देर वह मन्त्रमुग्ध सा निहारता रहा उगते सूरज की लालिमा को। अपूर्व अनुभूति से भर गया था मन 

उसका ।सामने ही नदी की निर्मल जल धारा में डुबकी लगाकर कितनी ताजगी महसूस की उसने।

              दादी ने उसकी पसन्द का नाश्ता बनाकर रखा था ।तृप्त हो गया ।दादी से कहने लगा ", इतने दिन क्यों दूर रखा मुझे इस सब से , क्यों नहीं पहले मुझे बुलाया अपने पास , क्या मेरी याद नहीं आती थी आपको दादी?"

            "बहुत आती बच्चे बहुत अधिक आती थी , पर पति के स्वाभिमान के सामने माँ की ममता हार जाती है , माँ का प्यार हार जाता है , कलेजे पर पत्थर रखना पड़ता है । तुझको क्या बताऊँ, अपने बेटे के जन्मदिन पर कितने आँसू पीकर उसकी खुशहाली की प्रार्थना करती थी प्रभु से ।कितनी बार चाहा कि एक बार तुझे देख पाऊँ किसी तरह ।शहर में  यहाँ का राजेन्द्र  रहता है ,कभी कभी जब वो आता था तो चुपके से खैर खबर सुना जाता था तेरे दादाजी के पीछे।"

         " हाँ दादी उन्होंने ही एक बार मुझे बताया था कि दादी तुम सब को कितना याद करती हैं, उनसे ही मैंने आप  का पता पूछ लिया था , सोच लिया था एक बार जरूर आऊँगा आपसे मिलने।"

        " जुग जुग जियो मेरे बच्चे, मैं एक बार तुम को देख पाई , मुझे तो लगता था कि मैं ऐसे ही अपने बच्चों के लिये तरसते हुये आँखे मूँद लूँगी अपनी।"

               ' नहीं दादी ऐसा मत कहो, इतनी अच्छी, प्यारी दादी

का प्यार बहुत समय तक चाहिये मुझे ।"

        दादी के गले लग गया रवि , दादी की आँखों से प्रेमाश्रु की धार बहने लगी।

              शहर से डाक्टर बन लौटते समय  वह रास्ते में दादा जी के गाँव रुक गया ।

         दादा दादी उसे देखकर चकित रह गये , कभी सोचा भी नहीं था कि वह इस तरह कभी उनसे मिलने आ सकता है। एकदम खुश हो गये , कितने वर्षों बाद आया था वह गाँव, घर का दूध , घी , अपने खेत की सब्जी , सब कुछ शुद्ध , वह बहुत खुश हुआ ।

       दादी को कहने लगा ," कितने समय बाद इतना शुद्ध वातावरण मिला है । शहर में प्रदूषण, धुआँ,शोर इतना होता है कि दम घुटने लगता है ।कितना अच्छा लग रहा है यहाँ ।

      जानती हो दादी , हमारे शहरों की धुन्ध में तारे तक नहीं दिखते है रात में और सारे  दिन शोर , भीड़ भाड़, ट्रैफिक, कितनी शान्ति है यहाँ ।"

           सुबह दादाजी उसे अपने खेत दिखाने ले गये ।

बहुत सारे खेत थे और थोड़ी दूर पर ही बहुत बड़ा फार्म हाउस था , 

कहने लगे , " मैने ये सारी जमीन तेरे पापा के लिये खरीदी थी , कि डाक्टर बन कर आयेगा तो यहाँ अस्पताल बनवा दूँगा ।दूर दूर तक कोई अस्पताल नहीं है,लोगों को बहुत दूर शहर जाना पड़ता है , 

पर उनको तो शहर का जीवन पसन्द था , मेरी एक न सुनी ।शहर में नौकरी मिलते ही पराया हो गया , अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली न पूछना न बताना , न कोई सम्पर्क।

 तब से ही मेरे और उसके मनों के बीच दीवार खड़ी हो गई , मैने फिर कोई वास्ता नहीं रखा उससे। 

           गाँव का मुखिया हूँ ,जितना हो सकता है  लोगों की सहायता करता हूँ, तन, मन, धन से मदद करने को तैयार रहता हूँ । इन लोगों से ही मिल जाती है परिवार की खुशी, बहुत प्यार , बहुत सम्मान करते है मेरा।"

               रवि दादाजी की बातें ध्यान से सुन रहा था और मन ही मन कुछ निश्चय कर रहा था।    

                घर पहुँच कर उसने पापा को फोन किया ।पापा ने पूछा " कब आ रहे हो ?काम पूरा हो गया?"

कहने लगा ," पापा,हाँ मै आ गया हूँ, मै गाँव में दादाजी के पास हूँ, मैं अब लौटकर कभी घर नहीं आने वाला, यहीं अस्पताल खोलना है मुझे, जो सपने उन्होंने आपको लेकर देखे थे उनको मैं पूरा  करूँगा ।"

 " ये सब तुम क्या कह रहे हो ?हमने नहीं उन्होंने ही हमसे सम्बन्ध खतम किये हैं।"

        " आपने एक बार आकर उनके पैर छूकर अपनी गलतियों की क्षमा मांगी?एक बार उनके गले लगकर मनों में खिंची दीवार को दूर करने का प्रयास किया ।

दादी कितना याद करती हैं आपको , माँ बाप के लिये बच्चों के दूर हो जाने का कष्ट क्या होता है यह तब समझोगे जब अपने बच्चे से दूर हो जाओगे ।"

          पापा का मन भर आया जैसे किसी ने दुखती रग को छू दिया हो।  कहने लगे,"हम जल्दी ही पहुँच जायेंगे रवि।"

    फोन रख दिया उन्होंने ।

                अगली सुबह तीनों बैठे बातें कर रहे थे तभी दादाजी ने देखा कि घर के सामने गाड़ी आकर रुकी और उनके बेटा बहू ने आकर एकदम उन दोनों के पैर पकड़  लिये।

         दादाजी ने उन को उठाकर आश्चर्य से पूछा , तुम यहाँ क्यों आये? कैसे आये?

ये सब क्या है?

             बेटा हँस कर कहने लगा ," जहाँ रवि वहाँ हम । इसने तो यहाँ अस्पताल खोलने का निश्चय किया है आपकी छत्रछाया में। तो आपका आशीर्वाद लेने और इसे आशीर्वाद देने तो आना ही था न।"

          दादाजी निशबद हो गये।

     दादी इतने समय बाद बच्चों को देखकर भाव विह्वल हो गई थीं ।बेटे बहू को गले लगाकर रोने लगी।

        बोलीं  ," मेरा रवि देवदूत बन कर आया  है मेरे लिये , मेरे सारे दुःख दर्द दूर हो गये आज।तुझको मेरी याद नहीं आई कभी ? माँ को भूल गया बिल्कुल ।"

        बहू बोली ," नहीं, माँ को कोई कैसे भूल सकता है? अक्सर कहते थे मेरी माँ जैसा खाना कोई नहीं बना सकता । कितने बार बचपन की बातें सुनाते थे ।बस पापा के डर से हिम्मत  नहीं होती थी आने की।"

           दादाजी चकित हो रवि को देख रहे थे और रवि मन  ही मन मुस्कुरा रहा था कि आखिर दोनों के मनों के बीच की दीवार गिराने में सफल हो ही गया ।

 एक नई सुबह ने आलोकित कर दिया था , सब के मनों को।

आत्मसुधार

                                                                        *आत्मसुधार*

  एक बार एक व्यक्ति दुर्गम पहाड़ पर चढ़ा, वहाँ पर उसे एक महिला दिखीं, वह व्यक्ति बहुत अचंभित हुआ, उसने जिज्ञासा व्यक्त की कि *वे इस निर्जन स्थान पर क्या कर रही हैं।*

उन महिला का उत्तर था *मुझे अत्यधिक काम हैं!* 

इस पर वह व्यक्ति बोला *आपको किस प्रकार का काम है, क्योंकि मुझे तो यहाँ आपके आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा।* 

महिला का उत्तर था *मुझे दो बाज़ों को और दो चीलों को प्रशिक्षण देना है, दो खरगोशों को आश्वासन देना है, एक गधे को आलस्य-प्रमाद से बाहर निकालना है, एक सर्प को अनुशासित करना है और एक सिंह को वश में करना है।* 

व्यक्ति बोला *पर वे सब हैं कहाँ, मुझे तो इनमें से कोई नहीं दिख रहा!* 

महिला ने कहा *ये सब मेरे ही भीतर हैं।*

*दो बाज़ जो हर उस चीज पर गौर करते हैं, जो भी मुझे मिलीं अच्छी या बुरी। मुझे उन पर काम करना होगा, ताकि वे सिर्फ अच्छा ही देखें, ये हैं मेरी आँखें।*

*दो चील जो अपने पंजों से सिर्फ चोट और क्षति पहुंचाते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, चोट न पहुंचाने के लिए, वे हैं मेरे हाँथ।*

*खरगोश यहाँ वहाँ भटकते फिरते हैं, पर कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं करना चाहते। मुझे उनको सिखाना होगा पीड़ा सहने पर या ठोकर खाने पर भी शान्त रहना,वे हैं मेरे पैर।*

*गधा हमेशा थका रहता है, यह जिद्दी है। मै जब भी चलती हूँ, यह बोझ उठाना नहीं चाहता, इसे आलस्य प्रमाद से बाहर निकालना है, यह है मेरा शरीर।*

*सबसे कठिन है साँप को अनुशासित करना। जबकि यह 32 सलाखों वाले एक पिंजरे में बन्द है, फिर भी यह निकट आने वालों को हमेशा डसने, काटने, और उनपर अपना ज़हर उडेलने को आतुर रहता है, मुझे इसे भी अनुशासित करना है - यह है मेरी जीभ!*

*मेरा पास एक शेर भी है, आह! यह तो निरर्थक ही घमंड करता है। वह  सोचता है कि वह तो एक राजा है। मुझे उसको वश में करना है, यह है मेरा मैं।*

*तो देखा आपने मुझे कितना अधिक काम है!*


सोंचिये और विचरिये हम सब में काफी समानता है! *अपने उपर बहुत कार्य करना है, तो छोडिए दूसरों को परखना, निंदा करना, टीका टिप्पणी करना और उस पर आधारित  नकारत्मक धारणायें बनाना। चलें पहले अपने उपर काम करें..!!*


बुढ़ापे की लाठी


बुढापे की लाठी

 *बुढापे की लाठी*


लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है।इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापा अच्छे से कटे।

ये बात सच भी है क्योंकि बेटा ही घर में बहु लाता है।बहु के आ जाने के बाद एक बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे पर डाल देता है।

और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी।जी हाँ मेरा तो यही मनाना है वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर अपना जीवन अच्छे से व्यतीत करते हैं।

एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती।कौन कब और कैसी चाय पीते है, क्या खाना बनाना है, शाम में नाश्ता में क्या देना,रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है।अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो पूरे मन या बेमन से बहु ही देखभाल करती है।

अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चले जाएं,बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो।वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे।कोई और पूछने वाला उनके पास नही होता ।

क्योंकि बेटे के  पास  समय  नही है,और अगर बेटे को समय मिल जाये भी तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है।

क्योंकि बेटे के चंद सवाल है और उसकी ज़िम्मेदारी खत्म...

 जैसे माँ-बाबूजी को खाना खाएं,चाय पियें, नाश्ता किये, लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं।ये लगभग सभी घरों की कहानी है।मैंने तो ऐसी बहुएं देखी है जिसने अपनी सास की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी,

और ऐसे कई बहु के उदाहरण हैं!

कभी अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है, क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा,उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती हैं बुढ़ापे की असली लाठी ।


संदेश-


*"बहु" की त्याग और सेवा को पहचानिएं*

*बेटे से पहले बहु को अपना बेटा मानिएं*


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अंधकार और चिंतन

 अंधकार और चिंतन 


अंधकार दो प्रकार का होता है। एक रात्रि का और दूसरा विचारों का। आप कुछ भी न करें, तब भी रात्रि का अंधकार तो 10/12 घंटे में स्वयं ही हट जाता है। परंतु जो विचारों का अंधकार है, वह स्वयं नहीं हटता। उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। चिंतन करना पड़ता है। बुद्धिमत्ता से समस्याओं को सुलझाना पड़ता है। ऐसा पुरुषार्थ करने से वह विचारों का अंधकार दूर हो जाता है।


इन दोनों में से रात्रि का अंधकार इतना खतरनाक नहीं है, जितना कि विचारों का। अतः विचारों के अंधकार से बाहर आने के लिए, ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को बुद्धिमत्ता से चिंतन अवश्य करना चाहिए, परन्तु चिंता नहीं।


चिंता और चिंतन, इन दोनों में बहुत अंतर है। चिंता समस्याओं में उलझाती है, और चिंतन समस्याओं को सुलझाता है। जब व्यक्ति चिंता करता है, अर्थात वह ऐसा सोचता है, कि अब यह समस्या आने वाली है, इस को मैं कैसे दूर करूं? मुझे कोई उपाय सूझता नहीं। मेरे पास इतने साधन नहीं हैं, कोई मेरी सहायता करने वाला नहीं है इत्यादि। इस प्रकार से जो व्यक्ति सोचता है, तो उसकी समस्या बढ़ती जाती है, हल नहीं होती। इसका नाम है चिंता करना। ऐसा करने से हानि होती है। क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करने की  क्षमता और अधिक घट जाती है। तनाव बढ़ जाता है। बुद्धि काम नहीं करती। इसलिए कोई ठीक समाधान प्राप्त नहीं होता। धीरे-धीरे व्यक्ति यदि ऐसी आदत बना ले, तो वह डिप्रैशन में भी जा सकता है। इसलिए चिंता नहीं करनी चाहिए।


चिंतन का अर्थ है, समस्या को सुलझाने के लिए गंभीरता से पूरा प्रयत्न करना। इसमें तीन बातें सोचनी चाहिएं। पहली बात यह सोचनी चाहिए, कि - समस्या क्या है? दूसरी बात यह सोचनी चाहिए, कि - इसका कारण क्या है? यह समस्या क्यों उत्पन्न हो रही है? और तीसरी बात यह सोचनी चाहिए, कि - इसका उपाय क्या है? इसको दूर कैसे करें? इस प्रक्रिया का नाम है चिंतन। चिंतन करने से, ईश्वर की कृपा से, समस्या का कोई न कोई समाधान निकल ही आता है। 


यदि समाधान स्वयं प्राप्त न हो पाए, तो किसी अन्य बुद्धिमान की सलाह लेनी चाहिए, जिसका उस क्षेत्र में अधिक ज्ञान और अनुभव हो। उसकी सलाह से आपकी समस्या हल हो जाएगी, और आप स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेंगे। इसलिए चिंता न करें, चिंतन अवश्य करें।


आत्मबोध



 आत्मबोध 


इस सृष्टि की रचना जितनी अद्भुत है, उससे भी अधिक सांसारिक जीवन जटिल है। आदि काल से अब तक ऋषि-मुनियों ने इसे जानने का प्रयास किया है और करते आ रहे हैं। ईश्वर ने अन्य जीवों से इतर मनुष्य नामक प्राणी बनाया। उसे ज्ञान, बुद्धि और विवेक दिया। फिर भी क्या मनुष्य अपना जीवन ठीक से जी पा रहा है? नहीं। वह यश-अपयश, दुख-सुख, मान-अपमान और जय-पराजय के बीच जीवन बिता रहा है। रात-दिन भौतिक सुख के पीछे अपनी मानसिक शांति खो रहा है। यह जानते हुए भी कि मृत्यु के बाद यह नश्वर संसार और भौतिक वस्तुएं यहीं छूट जाएंगी, फिर भी वह इनका मोह नहीं छोड़ पाता। यही कारण है कि वह अन्य जीव जंतुओं की भांति कर्मो का भोग करते हुए पुनर्जन्म को प्राप्त होता है। दुख, अवसाद, मानसिक-शारीरिक क्लेश उनका पीछा नहीं छोड़ते। इनसे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है-आत्मबोध! जब तक आत्मज्ञान नहीं होगा तब तक मनुष्य इसी प्रकार कष्ट भोगता रहेगा। ईश्वर क्या है? हम क्या हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है? आदि बातों का ज्ञान होना ही आत्मबोध है।


आत्मज्ञान हो जाने के बाद सांसारिक जीवन का मोह कम होने लगता है और मनुष्य ईश्वरोन्मुख हो जाता है। यही अध्यात्म है। इसका ज्ञान एक योग्य गुरु से प्राप्त होता है। गुरु आगे का मार्ग प्रशस्त करता है। इसके अतिरिक्त सद्ग्रंथों का अध्ययन, सत्संग और ईश्वर का ध्यान करना उपयोगी होता है। मानव जीवन का लक्ष्य है परोपकार, प्रेम, सहानुभूति, दया और प्रत्येक जीव के प्रति संवेदनशील होना। जब हमें आत्मबोध हो जाएगा तो हम सबके साथ वही व्यवहार करेंगे जैसा हम अपने प्रति चाहते हैं। ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि के प्रत्येक जीव के साथ प्रेम करना ही ईश्वर भक्ति है। ईश्वर की सृष्टि अति सुंदर है इसे बिगाड़ने की चेष्टा कदापि नहीं करनी चाहिए। जो हमें प्राप्त है उसका उचित ढंग से उपयोग करने में ही जीवन का सुख है। यदि हम एकांत में अकेले बैठकर ईश्वर से प्रार्थना करें तो निश्चित रूप से हमें आत्मबोध होगा। आत्मबोध हो जाने के बाद यह संसार निरर्थक लगने लगेगा। मन ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाएगा, जहां परमशांति और परमानंद की प्राप्ति होगी।

     

विचारों की शक्ति

 *विचारों की प्रचंड शक्ति*


*जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वह ठीक वैसा ही बन जाता है*


*जिन-जिन वस्तुओं का विचार तथा चिंतन किया जाएगा, वे वस्तुएँ निश्चित रूप से हमारे समीप चली आएँगी,*

 *अतः जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं, सदा उसी का विचार करो*

*इन्हीं विचारों में निर्मलता लाने के लिए दो महान गुणों की प्रशंसा हमारे मन में भरी पड़ी है*

*वे हैं "दया" तथा "क्षमा"* 


*"दया" के विचारों से निर्मलता आती है*

*तथा "क्षमा" से निर्मलता को स्थिरता प्राप्त होती है ।*

*बिना दया तथा क्षमा का भाव रखे, किसी को कभी भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती ।*


*"सद्विचार" तथा "सद्भाव" ही हमारी सम्पत्ति हैं*

*जिस दिन तुम्हें विचारों की शक्ति का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाएगा, उसी दिन अनेक शंकाएँ तथा समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी ।*

*अच्छे कार्य करने से भी अच्छे विचारों की संस्कारवर्धक शक्ति अधिक तीव्र होती है ।*

*जैसी बातें मनुष्य विचारेगा, कुछ समय के पश्चात वह स्वयं देखेगा कि उसके विचारों के अनुकूल ही उसका वातावरण बनता जा रहा है ।*


*जिन-जिन परिस्थितियों व वस्तुओं का उसने चिंतन किया है, वे उसके अधिकाधिक समीप आ पहुँचती है ।*

*मनुष्य अपने विचारों से ही "उच्च" तथा "निम्न" बनता है ।*


*"विचार" ही कार्य की प्रेरक शक्ति है , "विचार" तथा "कर्म" का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है*

                                                                स्वयं-विचार-करें​

नवजात शिशु का वजन

 *नवजात शिशु का वज़न और लंबाई*-

  नवजात शिशु का वज़न 3 कि.ग्रा. होता है। शुरू के दिनों में यह 10 प्रतिशत अर्थात 300 ग्राम तक कम हो सकता है, परंतु 10 दिनों में शिशु वापिस जन्म के वजन को प्राप्त कर लेता है। इसके बाद प्रथम तीन महिने का प्रतिदिन 25 से 30 ग्राम और उसके उपरान्त एक वर्ष की आयु तक प्रतिमाह 400 ग्राम वजन बढ़ता है।इस प्रकार बच्चे का वजन पांच माह में जन्म का दुगना,एक वर्ष में तीन गुना व दो वर्ष में चार गुना हो जायेगा।इस प्रकार 3 कि.ग्राम नवजात का वजन पांच माह,एक वर्ष व दो वर्ष की आयु पर क्रमशः 6,9 व 12 कि.ग्रा. होना चाहिए। तीन वर्ष की आयु पर 15 कि.ग्रा.,5 वर्ष की आयु पर 18 तथा 7 वर्ष पर 21व दस वर्ष पर 30 कि.ग्रा. वजन होना चाहिए।

*लंबाई*- जन्म के समय बच्चों की लंबाई 50 से.मी.,3 महिने पर 60, तथा 9 महिने पर 70 से.मी. और एक वर्ष पर 75 से.मी. होनी चाहिए।दो वर्ष की उम्र पर लंबाई 90 से.मी.और चार वर्ष की आयु तक प्रतिवर्ष 5 से.मी. लंबाई बढ़ती है।

             साभार- आर.पी.वर्मा



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मनुष्य का शत्रु

 मनुष्य का शत्रु आलस्य



किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।


हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे।


जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-


काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।

पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥


दूसरी बात ध्यान में यह रखनी है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिये जायं, क्योंकि इससे किसी भी काम में पूरा मनोयोग एवं उत्साह नहीं रहने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूरे हुए बिना कार्य का फल नहीं मिल सकता। जैन धर्म में कार्य सिद्धि में बाधा देने वाली तेरह बातों को तेरह काठियों (रुकावट डालने वाले) की संज्ञा दी गई है। उसमें सबसे पहला काठिया ‘आलस्य’ ही है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है।


प्रातःकाल निद्रा भंग हो जाती है, पर आलस्य के कारण हम उठकर काम में नहीं लगते। इधर-उधर उलट-पुलट करते-करते काम का समय गंवा बैठते हैं। जो व्यक्ति उठकर काम में लग जाता है, वह हमारे उठने के पहले ही काम समाप्त कर लाभ उठा लेता है। दिन में भी आलसी व्यक्ति विचार में ही रह जाता है, करने वाला कमाई कर लेता है। अतः प्रति समय किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए। कहावत भी है ‘बैठे से बेगार भली’। निकम्मे आदमी में कुविचार ही घूमते हैं। अतः निकम्मेपन को हजार खराबियों की जड़ बतलाया गया है।


मानव जीवन बड़ा दुर्लभ होने से उसका प्रति क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। जो समय जाता है, वापिस नहीं आता। प्रति समय आयु क्षीण हो रही है, न मालूम जीवन दीप कब बुझ जाय। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। महात्मा गौतम गणधर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उत्तराध्ययन-सूत्र में ‘समयं गोयम मा पमायए’ आदि- बड़े सुन्दर शब्दों में उपदेश दिया है। जिसे पुनः-पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील रहना परमावश्यक है। जैन दर्शन में प्रमाद निकम्मे पन के ही अर्थ में नहीं, पर समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में है। पापाचरण करके भी जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ ही न गंवाइये।


आलस्य के कारण हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं होते- अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते और शक्ति का उपयोग न कर, उसे कुँठित कर देते हैं। किसी भी यन्त्र एवं औजार का आप उपयोग करते रहते हैं तो ठीक और तेज रहता है। उपयोग न करने से पड़ा-पड़ा जंग लगकर बरबाद और निकम्मा हो जाता है। उसी प्रकार अपनी शक्तियों को नष्ट न होने देकर सतेज बनाइये। आलस्य आपका महान शत्रु है। इसको प्रवेश करने का मौका ही न दीजिए एवं पास में आ जाए तो दूर हटा दीजिए। सत्कर्मों में तो आलस्य तनिक भी न करे क्योंकि “श्रेयाँसि बहु विघ्नानि” अच्छे कामों में बहुत विघ्न जाते हैं। आलस्य करना है, तो असत् कार्यों में कीजिए, जिससे आप में सुबुद्धि उत्पन्न हो और कोई भी बुरा कार्य आप से होने ही न पावे।

सज्जन और दुर्जन में भेद


        "संसार में सब प्रकार के लोग होते हैं। कुछ सज्जन होते हैं और कुछ दुर्जन।"

          सामान्य रूप से तो प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को समाज में 'सज्जन' के रूप में ही प्रस्तुत करता है। "वह स्वयं को बहुत अच्छा बुद्धिमान धार्मिक सदाचारी चरित्रवान ईमानदार ईश्वरभक्त देशभक्त आदि के रूप में प्रस्तुत करता है।" "परंतु जैसे जैसे उसका व्यवहार सामने आता है, वैसे वैसे लोग उसका नाटक पहचानने लगते हैं, और धीरे-धीरे दूसरों को पता चल जाता है, कि यह सज्जन है या दुर्जन!" यह तो हुई सामान्य परिस्थितियों की बात।

           परन्तु विशेष परिस्थिति में जब कोई व्यक्ति आपत्ति में फंस जाता है, उसके जीवन में कोई विशेष कठिनाई आ जाती है, "जैसे उसको व्यापार में घाटा हो गया, भूकंप में उसका मकान गिर गया, किसी ने झूठा आरोप लगाकर उसे बदनाम कर दिया, कहीं दुर्घटना में पत्नी या बेटे का अवसान हो गया आदि आदि।" "इस प्रकार की किसी भी आपत्ति की चपेट में जब कोई व्यक्ति आ जाता है, तब वह उन लोगों से सहायता मांगता है, जो लोग सामान्य परिस्थितियों में अपने आप को बहुत अच्छा 'देवता' के रूप में प्रस्तुत करते थे।" अब इस आपत्ति काल में उन सारे देवता दिखने वाले लोगों की परीक्षा हो जाती है, कि "वे कितने सज्जन हैं और कितने दुर्जन? कितने सहयोगी हैं, और कितने स्वार्थी!"

          सामान्य परिस्थितियों में यदि कोई व्यक्ति अपने आप को बहुत अच्छा/सज्जन के रूप में प्रस्तुत करता था, और अपने मित्र के आपत्ति काल में वह कुछ भी उसका सहयोग नहीं करता, तो आप समझ जाएंगे, कि "यह अच्छा व्यक्ति नहीं है, यह कोई देवता नहीं है, बल्कि दिखावा करने वाला, स्वार्थी और दुर्जन है।"

        यदि वह अपने मित्र के आपत्तिकाल में सहयोग करता है, तो समझ लीजिए, कि "वह वास्तव में सज्जन है, ईमानदार है, ईश्वरभक्त है, देशभक्त है, चरित्रवान है, बुद्धिमान है, और सच्चा आस्तिक है।" ऐसे लोगों के साथ ही संबंध रखना चाहिए।

         अनेक बार व्यक्ति को पता होता है कि "मेरा मित्र आपत्ति में है, और इसे सहायता की आवश्यकता है। "मैं जितना धन इसे पहले सहायता में दे चुका हूं, वह भी मुझे वापस नहीं मिलेगा। अब यह और धन मांग रहा है। अब यदि मैं इसे और धन दूं, तो इसके भी वापस लौटने की कोई आशा नहीं है।" "ऐसी परिस्थिति में भी जब कोई उदार व्यक्ति, अपने मित्र की धन आदि देकर सहायता करता है, तो वह तो 'साक्षात देवता' है। वही वास्तव में सज्जन है, ईश्वर भक्त है, धार्मिक है, चरित्रवान है, ऐसा समझना चाहिए।"

         "और दूसरी तरफ -- जो अपने ऊपर उपकार करने पर भी दूसरे व्यक्ति का उपकार न माने, वह तो 'दुर्जन' है ही। इसमें क्या सन्देह? अर्थात कोई सन्देह नहीं है।"

          

दृढ़ता ही सफलता

दृढ़ता ही सफलता 


एक गांव में एक किसान रहता था| वह आवश्यकतानुसार एक कुआं खोदना चाहता था|काफी विचार करने के पश्चात् एक दिन उसने कुआं खोदना शुरू किया| कुछ फीट तक खुदाई करने पर भी जब उसे पानी नहीं दिखाई दिया तो वह निराश हो गया। निराशा की उसी दशा में फिर उसने दूसरी जगह खुदाई की किंतु पानी कहीं पर भी नहीं निकला|इस प्रकार उसने 6-7 जगहों पर खुदाई की किंतु उसे पानी नसीब नहीं हुआ| वह बेहद दुखी और निराश मन से घर लौट आया|


अगले दिन उसने सारी बात एक_बुजुर्ग व्यक्ति को बताई|उस व्यक्ति ने गंभीरता से उसकी बातों पर विचार कर उसे समझाते हुए कहा- “तुमने पांच अलग-अलग जगहों पर 6-7 फुट के गड्ढे खोदे लेकिन फिर भी तुम्हें कुछ हाथ नहीं लगा| यदि तुम अलग-अलग जगह पर खुदाई न करके एक_ही_स्थान पर इतना खोदते, तो तुम्हें पानी अवश्य मिल जाता|तुमने धैर्य से काम नहीं लिया और थोड़ा-थोड़ा खोदकर अपना निर्णय बदल लिया| आज तुम एकाग्रता से एक ही स्थान पर गड्ढा खोदो और जब तक पानी दिखाई नहीं दे तब तक खोदना जारी रखना| तुम्हें सफलता जरूर मिलेगी|”


उस दिन किसान ने दृढ़ निश्चय करते हुए एक बार फिर खुदाई शुरू कर दी| लगभग 25-30 फुट की खुदाई हो जाने पर खेत से पानी निकल आया| यह देखकर किसान बहुत खुश हुआ और मन ही मन उस व्यक्ति का धन्यवाद करने लगा|


सत्य यही है कि यदि हम धैर्य का दामन छोड़ देंगे तो सफलता अपनी दिशा बदलकर अन्यत्र चली जाएगी। वस्तुत: यदि किसी कार्य को पूरी एकाग्रता के साथ किया जाए तो उसमें सफलता जरूर मिलती है| धैर्य कठिन परिस्थितियों में व्यक्ति की सहनशीलता की अवस्था है जो उसके व्यवहार को क्रोध या खीझ जैसी नकारात्मक अभिवृत्तियों से बचाती है। दीर्घकालीन समस्याओं से घिरे होने के कारण व्यक्ति जो दबाव या तनाव अनुभव करने लगता है उसको सहन कर सकने की क्षमता भी धैर्य का एक उदाहरण है। वस्तुतः धैर्य नकारात्मकता से पूर्व सहनशीलता का एक स्तर है। यह व्यक्ति की चारित्रिक दृढ़ता का परिचायक भी है और यही  *दृढ़ता* हमारे लिए सफलता_का_प्रवेश_द्वार बन जाती है। 


बार बार सिर चकराना

 *बार-बार सिर का चकराना*:--- *कारण*--बीपी का असामान्य तौर पर बढ़ना या घटना,शरीर में पानी, सोडियम या हिमोग्लोबीन की कमी से भी हो सकता है या म...