"संसार में सब प्रकार के लोग होते हैं। कुछ सज्जन होते हैं और कुछ दुर्जन।"
सामान्य रूप से तो प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को समाज में 'सज्जन' के रूप में ही प्रस्तुत करता है। "वह स्वयं को बहुत अच्छा बुद्धिमान धार्मिक सदाचारी चरित्रवान ईमानदार ईश्वरभक्त देशभक्त आदि के रूप में प्रस्तुत करता है।" "परंतु जैसे जैसे उसका व्यवहार सामने आता है, वैसे वैसे लोग उसका नाटक पहचानने लगते हैं, और धीरे-धीरे दूसरों को पता चल जाता है, कि यह सज्जन है या दुर्जन!" यह तो हुई सामान्य परिस्थितियों की बात।
परन्तु विशेष परिस्थिति में जब कोई व्यक्ति आपत्ति में फंस जाता है, उसके जीवन में कोई विशेष कठिनाई आ जाती है, "जैसे उसको व्यापार में घाटा हो गया, भूकंप में उसका मकान गिर गया, किसी ने झूठा आरोप लगाकर उसे बदनाम कर दिया, कहीं दुर्घटना में पत्नी या बेटे का अवसान हो गया आदि आदि।" "इस प्रकार की किसी भी आपत्ति की चपेट में जब कोई व्यक्ति आ जाता है, तब वह उन लोगों से सहायता मांगता है, जो लोग सामान्य परिस्थितियों में अपने आप को बहुत अच्छा 'देवता' के रूप में प्रस्तुत करते थे।" अब इस आपत्ति काल में उन सारे देवता दिखने वाले लोगों की परीक्षा हो जाती है, कि "वे कितने सज्जन हैं और कितने दुर्जन? कितने सहयोगी हैं, और कितने स्वार्थी!"
सामान्य परिस्थितियों में यदि कोई व्यक्ति अपने आप को बहुत अच्छा/सज्जन के रूप में प्रस्तुत करता था, और अपने मित्र के आपत्ति काल में वह कुछ भी उसका सहयोग नहीं करता, तो आप समझ जाएंगे, कि "यह अच्छा व्यक्ति नहीं है, यह कोई देवता नहीं है, बल्कि दिखावा करने वाला, स्वार्थी और दुर्जन है।"
यदि वह अपने मित्र के आपत्तिकाल में सहयोग करता है, तो समझ लीजिए, कि "वह वास्तव में सज्जन है, ईमानदार है, ईश्वरभक्त है, देशभक्त है, चरित्रवान है, बुद्धिमान है, और सच्चा आस्तिक है।" ऐसे लोगों के साथ ही संबंध रखना चाहिए।
अनेक बार व्यक्ति को पता होता है कि "मेरा मित्र आपत्ति में है, और इसे सहायता की आवश्यकता है। "मैं जितना धन इसे पहले सहायता में दे चुका हूं, वह भी मुझे वापस नहीं मिलेगा। अब यह और धन मांग रहा है। अब यदि मैं इसे और धन दूं, तो इसके भी वापस लौटने की कोई आशा नहीं है।" "ऐसी परिस्थिति में भी जब कोई उदार व्यक्ति, अपने मित्र की धन आदि देकर सहायता करता है, तो वह तो 'साक्षात देवता' है। वही वास्तव में सज्जन है, ईश्वर भक्त है, धार्मिक है, चरित्रवान है, ऐसा समझना चाहिए।"
"और दूसरी तरफ -- जो अपने ऊपर उपकार करने पर भी दूसरे व्यक्ति का उपकार न माने, वह तो 'दुर्जन' है ही। इसमें क्या सन्देह? अर्थात कोई सन्देह नहीं है।"
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