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मनुष्य जीवन का उद्देश्य
*मनुष्य जीवनका ऊदेश्य*
*"मनुष्य शरीर धारण करना और मनुष्यताको धारण करना दोनों में बहुत अंतर है।"*
*"मनुष्य शरीरको धारण किए हुए तो इस पृथ्वी पर करोड़ों व्यक्ति हैं। परंतु मनुष्यताको धारण करने वाले, उनकी तुलनामें बहुत ही कम लोग हैं।"*
आप सोचेंगे, कि *"मनुष्य शरीरको धारण करनेमें और मनुष्यताको धारण करनेमें क्या अंतर है?"*
संसारमें लाखों प्रकारके प्राणी हैं। गाय घोड़े हाथी बंदर कुत्ते गधे मनुष्य आदि। ये सब योनियां उनके पूर्व जन्मोंके कर्मों का फल है। *"जिस आत्माने पूर्व जन्ममें अच्छे कर्म किए, उसको ईश्वरने मनुष्य जन्म दिया। जिसने अच्छे कर्म नहीं किए, उसे ईश्वरने पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा आदि शरीर दिया।"*
लाखों योनियोंमें केवल मनुष्य योनि ही सबसे उत्तम मानी जाती है और है भी। *"क्योंकि उसे ईश्वरने बहुत सी विशेष सुविधाएं दी हैं। जैसे कि ईश्वरने मनुष्योंको बहुत अच्छी बुद्धि दी है। बोलनेके लिए भाषा दी है। कर्म करनेके लिए दो हाथ दिए हैं। कर्म करनेकी स्वतंत्रता भी दी है और चार वेदोंका ज्ञान भी दिया है। ये सारी सुविधाएं अन्य प्राणियों को नहीं दी।"*
इन सब सुविधाओंके कारण मनुष्य अन्य प्राणियोंकी तुलना में बहुत अधिक सुखी है। इससे पता चलता है कि *"उसने पूर्व जन्ममें अच्छे कर्म किए। इसलिए उसे सुख देने वाली ये सब विशेष सुविधाएं दी गई।" "अतः मनुष्य शरीर धारण करना बहुत कठिन है। बहुत पुण्य कर्म करने पर ही यह मिलता है।"*
यह तो बात हुई पिछले जन्म के कर्मों के फल की।
*"अब मनुष्य जन्म धारण करने जैसा कठिन काम करके भी, इस जन्ममें सब लोग मनुष्यताको धारण नहीं कर पा रहे। क्योंकि यह उससे भी अधिक कठिन है।"*
जैसे कि ईश्वरने जो मनुष्योंको कर्म करनेकी स्वतंत्रता दी है। अब इस जन्ममें मनुष्य लोग इस स्वतंत्रताका बहुत अधिक दुरुपयोग कर रहे हैं।
*"जैसे झूठ बोलना छल कपट करना धोखा देना अन्याय करना अत्याचार करना दूसरोंका शोषण करना इत्यादि बुरे कर्म कर रहे हैं।"*
*"जब ऊपर बताई बुद्धि, हाथ, कर्म करनेकी स्वतंत्रता आदि सारी सुविधाओंका कोई व्यक्ति सदुपयोग करता है, अच्छे काम करता है, स्वयं सुखी रहता है, तथा दूसरोंको भी सुख देता है। सबके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करता है। किसीके साथ अन्याय नहीं करता। किसीका शोषण नहीं करता। किसी पर अत्याचार नहीं करता। तो इन्हीं गुणोंको धारण करनेका नाम 'मनुष्यता' है।"*
अब संसारमें सत्य यही है, कि *"मनुष्य शरीरको धारण करनेवाले तो करोड़ों व्यक्ति हैं। परन्तु इस मनुष्यताको धारण करने वाले लोग बहुत कम दिखते हैं। क्योंकि इस प्रकारसे जीवन जीना बहुत कठिन है।"*
"कठिन भले ही हो फिर भी असंभव नहीं है। कुछ बुद्धिमान तथा पुरुषार्थी लोग इस कठिन तपस्याको करते हैं और मनुष्यताको धारण करके स्वयं भी सुखसे जीते हैं तथा दूसरोंको भी सुख देते हैं।"*
*"आप सबको भी इस 'मनुष्यता' को धारण करनेका पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए, जिससे कि आपका यह जन्म भी उत्तम सुखदायक हो और अगला भी।"*
#कहानी , #काम_की_बात
लार की उपयोगिता
लार की उपयोगिता
*लार दुनिया की सबसे अच्छी ओषधि है ।इसमे औषधीय गुण बहुत अधिक है ।किसी चोट पर लार लगाने से चोट ठीक हो जाती है। लार पैदा होने में लग्भग एक लाख ग्रन्थिया काम करती है। जब कफ अधिक बढ़ा हो तभी आप थूक सकते है अन्यथा लार कभी थूकना नही चाहिए । सुबह की लार बहुत क्षारीय होती है । इसका PH 8.4 के आस पास होता है ।*
*पान बिना कत्था सुपारी और जर्दे (तम्बाकू)के खाना चाहिये जिससे उसकी लार थूकना ना पड़े । कत्था औ जर्दा से कैंसर हो सकता है इसलिए इसकी लार अंदर नही लेना चाहिये । गहरे रंग की वनस्पतिया कैंसर , मधुमेह ,अस्थमा ,जैसी बीमारियों से बचाती है। पान कफ और पित्त दोनो का नाश करता है।चुना वात का नाश करता है ।जिस वनस्पति का रंग जितना अधिक गहरा हो वह उतनी बड़ी ओषधि मानी गई है।*
*देशी पान (गहरे रंग वाला जिसका स्वाद कैसेला हो) गेंहू के दाने बराबर चुना मिलाए ,सौंफ मिलाए ,अजवायन डाले, लौंग ,बड़ी इलायची ,गुलकंद मिलाकर खाये*
*ब्रह्म मुहूर्त अर्थात सुबह की लार उठते ही लार को थूकना नही चाहिये बल्कि इसे अंदर निगलना चाहिये ।यह बाकी के समय से अधिक लाभप्रद होती है।*
*शरीर के घाव जो किसी दवा से ठीक ना हो रहे हो उस पर बासी मुँह की लार यानी सुबह उठते समय जो लार मुंह मे हो लगानी चाहिये। जख्म बहुत जल्द भरने लगेगा 15 दिन से 3 महीने में जख्म पूर्ण ठीक हो जाएगा ऐसा मानते है। गैंगरीन जैसी बीमारी लार लगाने से 2 साल में ठीक हो जाएगी। जानवर भी जीभ द्वारा चाटकर अपने जख्मो को ठीक कर लेते है ।*
*लार में वही 18 पोषक तत्व होते है जो मिटटी में पाए जाते है। शरीर पर कैसे भी दाग धब्बे हो सुबह की लार लगाने से ठीक होने लगते है। एक्जिमा सोरायसिस जैसी बीमारी भी सुबह की लार से ठीक हो सकती है इसका परिणाम एक साल में देखने को मिल जाता है।*
*सुबह की लार आंखों में लगाने /डालने से आंखों की रौशनी बढ़ती है और आंखों के चश्मे उतर सकते है। आँखे लाल होने पर लार लगाने से 24 घण्टे में ठीक हो जाती है। सुबह सुबह की लार ,आंखे टेढ़ी हो अर्थात आंखों में भैंगापन की बीमारी को ठीक सही कर देती है।*
*आंखों के नीचे काले धब्बे होने पर सुबह की लार लगाए । सुबह उठने के आधे घण्टे बाद लार में मौजूद क्षार तत्व कम होने लगता है*
*सुबह दातून नीम ,बबूल की दातुन करने से दांतो की सेहत अच्छी एवं इसकी लार अंदर लेने से शरीर को लाभ मिलता है केमिकल युक्त टूथपेस्ट लार को सुखा देता है अतः इनसे बचना चाहिये*
मोक्ष मार्ग
मोक्ष मार्ग
*मनुष्य शरीर ही मोक्ष धारण करता है । जो मनुष्य अपने दुःखों को दूर कर ले और दूसरों के दुःखों को दूर करने का काम करे ,वही मोक्ष का अधिकारी है । इसमें सफलता मिले न मिले ये महत्वपूर्ण नही है। ईमानदारी से प्रयास करे ,यह ज्यादा महत्वपूर्ण है ।*
*तीन तरह के दुःख पूरी दुनिया मे बताए गए है । (1) दैहिक दुःख (शरीर का दुख) , (2) दैविक दुःख (परमात्मा का दिया हुआ दुःख , (3) भौतिक दुःख (गरीबी का दुःख) । जो व्यक्ति इन तीनो दुखो से मुक्त हुवा और दूसरों को मुक्त करवाने में प्रयासरत है ,वही व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है ।*
*शरीर के दुख दूर करने की सबसे बड़ी भूमिका पेट की होती है। 90 प्रतिशत दैहिक दुःख पेट से सम्बंधित है । 10 प्रतिशत दुख ही पेट के अतिरिक्त होते है। इसलिये सबसे ज्यादा पेट का ध्यान रखना चाहिये । ये 90 प्रतिशत बीमारियों की संख्या लग्भग 150 है ।*
*हमारे समाज मे को -आप्रेशन था ,कम्पीटिशन नही था । भारत के लोगो का DNA धार्मिक चीजों से प्रेरित रहता है , गर्म देशों और ठन्डे देशों का DNA बिल्कुल अलग होता है। दुनिया के सभी धर्म पूर्व से निकले है अर्थात एशिया से निकले है और एशिया के देश पश्चिम की तुलना में गरम है। भारत की भूमि मध्य मार्गियो की भूमि है न ज्यादा भोगी बने न ज्यादा त्यागी बनो ऐसा गीता में श्री कृष्ण ने कहा बताया जाता है। जन्म होने में पीड़ा होती है मृत्यु को पीड़ा रहित शास्त्रों में लिखा बताया गया है। भारतीय शास्त्रों में मृत्यु को उत्सव कहा गया है। इसलिये किसी भी व्यक्ति को बीमारियों की पीड़ा सहक़र न मरना पड़े ,कुछ ऐसी व्यवस्था करनी होगी।*
*भारतीय शास्त्रों के अनुसार भारत में या इसकी सभ्यता संस्क्रति में सभी लोगो के कर्म ,मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य में होता है अर्थात सभी पर्व उत्सव ,क्रिया -कलाप आदि मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से किये जाते है।*
*प्यासे को पानी पिलाना भूखे को भोजन खिलाना बहुत बड़ा धर्म का काम बताया गया है*
*ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक चीजों का उपयोग करे। भारत के सभी लोग समृद्धशाली हो। एक व्यक्ति ठीक हो दुसरो को ठीक करे ।गलत खान पान या व्यर्थ की चिजो से बचे घर मे न लाये। अपने आस पास बनने वाली शुद्ध चीजों का ही प्रयोग करे।*
*अपनी मेहनत की कमाई का सोचसमझकर खर्च करे क्योकि आप गरीब होंगे तब ना अपनी जरूरतों को पूरा कर पाएंगे ना दुसरो की मदद कर सकते है और ऐसी स्थिति में देश भी गरीब बना रहेगा । किसी भी कार्य खान पान /पहनावा या लाइफ स्टाइल के चक्कर मे भेड़चाल नही चलनी चाहिये। खर्चो पर नियंत्रण न होने से आज बहुत से लोगो /परिवारों और देशों के हालात अच्छे नही अतः खर्च जरूरत में करे व्यर्थ के अत्यधिक खर्च से बचे ताकि आप आपका परिवार समाज राज्य देश सब खुशाल हो अंत मे तातपर्य केवल इतना कि शरीर को स्वस्थ रखे धन के महत्व को समझे और पाखण्ड वाद से बचे यही जीवन में सब पाना ही सबकुछ नही होता अपने अपनो के लिये देना भी देश /समाजहित में उन्नति की और जाता है यही सही मायने में मोक्ष कह सकते है*
*मृत्यु के बाद का ना आपने देखा ना हमने वर्तमान जीवन में खुशहाली लाओ ताकि सभी स्वस्थ रहे खुश रहे उन्नति करे यही मोक्ष कहलायेगा अन्यथा बाद में पछताने से कुछ नही होगा*
नई सुबह
*नई सुबह*
कितनी खूबसूरत सुबह थी, चारों तरफ हरियाली, फूलों का एक छोटा सा खूबसूरत बाग ,ठंडी शुद्ध हवा ,चिड़ियों की चहचहाहट, एक गहरी साँस ली रवि ने , एक अलौकिक आत्मिक आनन्द प्राप्त हो रहा हो जैसे ।
कितना अच्छा लग रहा था दादा जी के गाँव में ।इतना तरो ताजा , इतना खुशनुमा वातावरण शायद पहले कभी नहीं देखा था उसने।
प्रकृति के सौन्दर्य से कितना दूर रहा था न अब तक ।कितनी देर वह मन्त्रमुग्ध सा निहारता रहा उगते सूरज की लालिमा को। अपूर्व अनुभूति से भर गया था मन
उसका ।सामने ही नदी की निर्मल जल धारा में डुबकी लगाकर कितनी ताजगी महसूस की उसने।
दादी ने उसकी पसन्द का नाश्ता बनाकर रखा था ।तृप्त हो गया ।दादी से कहने लगा ", इतने दिन क्यों दूर रखा मुझे इस सब से , क्यों नहीं पहले मुझे बुलाया अपने पास , क्या मेरी याद नहीं आती थी आपको दादी?"
"बहुत आती बच्चे बहुत अधिक आती थी , पर पति के स्वाभिमान के सामने माँ की ममता हार जाती है , माँ का प्यार हार जाता है , कलेजे पर पत्थर रखना पड़ता है । तुझको क्या बताऊँ, अपने बेटे के जन्मदिन पर कितने आँसू पीकर उसकी खुशहाली की प्रार्थना करती थी प्रभु से ।कितनी बार चाहा कि एक बार तुझे देख पाऊँ किसी तरह ।शहर में यहाँ का राजेन्द्र रहता है ,कभी कभी जब वो आता था तो चुपके से खैर खबर सुना जाता था तेरे दादाजी के पीछे।"
" हाँ दादी उन्होंने ही एक बार मुझे बताया था कि दादी तुम सब को कितना याद करती हैं, उनसे ही मैंने आप का पता पूछ लिया था , सोच लिया था एक बार जरूर आऊँगा आपसे मिलने।"
" जुग जुग जियो मेरे बच्चे, मैं एक बार तुम को देख पाई , मुझे तो लगता था कि मैं ऐसे ही अपने बच्चों के लिये तरसते हुये आँखे मूँद लूँगी अपनी।"
' नहीं दादी ऐसा मत कहो, इतनी अच्छी, प्यारी दादी
का प्यार बहुत समय तक चाहिये मुझे ।"
दादी के गले लग गया रवि , दादी की आँखों से प्रेमाश्रु की धार बहने लगी।
शहर से डाक्टर बन लौटते समय वह रास्ते में दादा जी के गाँव रुक गया ।
दादा दादी उसे देखकर चकित रह गये , कभी सोचा भी नहीं था कि वह इस तरह कभी उनसे मिलने आ सकता है। एकदम खुश हो गये , कितने वर्षों बाद आया था वह गाँव, घर का दूध , घी , अपने खेत की सब्जी , सब कुछ शुद्ध , वह बहुत खुश हुआ ।
दादी को कहने लगा ," कितने समय बाद इतना शुद्ध वातावरण मिला है । शहर में प्रदूषण, धुआँ,शोर इतना होता है कि दम घुटने लगता है ।कितना अच्छा लग रहा है यहाँ ।
जानती हो दादी , हमारे शहरों की धुन्ध में तारे तक नहीं दिखते है रात में और सारे दिन शोर , भीड़ भाड़, ट्रैफिक, कितनी शान्ति है यहाँ ।"
सुबह दादाजी उसे अपने खेत दिखाने ले गये ।
बहुत सारे खेत थे और थोड़ी दूर पर ही बहुत बड़ा फार्म हाउस था ,
कहने लगे , " मैने ये सारी जमीन तेरे पापा के लिये खरीदी थी , कि डाक्टर बन कर आयेगा तो यहाँ अस्पताल बनवा दूँगा ।दूर दूर तक कोई अस्पताल नहीं है,लोगों को बहुत दूर शहर जाना पड़ता है ,
पर उनको तो शहर का जीवन पसन्द था , मेरी एक न सुनी ।शहर में नौकरी मिलते ही पराया हो गया , अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली न पूछना न बताना , न कोई सम्पर्क।
तब से ही मेरे और उसके मनों के बीच दीवार खड़ी हो गई , मैने फिर कोई वास्ता नहीं रखा उससे।
गाँव का मुखिया हूँ ,जितना हो सकता है लोगों की सहायता करता हूँ, तन, मन, धन से मदद करने को तैयार रहता हूँ । इन लोगों से ही मिल जाती है परिवार की खुशी, बहुत प्यार , बहुत सम्मान करते है मेरा।"
रवि दादाजी की बातें ध्यान से सुन रहा था और मन ही मन कुछ निश्चय कर रहा था।
घर पहुँच कर उसने पापा को फोन किया ।पापा ने पूछा " कब आ रहे हो ?काम पूरा हो गया?"
कहने लगा ," पापा,हाँ मै आ गया हूँ, मै गाँव में दादाजी के पास हूँ, मैं अब लौटकर कभी घर नहीं आने वाला, यहीं अस्पताल खोलना है मुझे, जो सपने उन्होंने आपको लेकर देखे थे उनको मैं पूरा करूँगा ।"
" ये सब तुम क्या कह रहे हो ?हमने नहीं उन्होंने ही हमसे सम्बन्ध खतम किये हैं।"
" आपने एक बार आकर उनके पैर छूकर अपनी गलतियों की क्षमा मांगी?एक बार उनके गले लगकर मनों में खिंची दीवार को दूर करने का प्रयास किया ।
दादी कितना याद करती हैं आपको , माँ बाप के लिये बच्चों के दूर हो जाने का कष्ट क्या होता है यह तब समझोगे जब अपने बच्चे से दूर हो जाओगे ।"
पापा का मन भर आया जैसे किसी ने दुखती रग को छू दिया हो। कहने लगे,"हम जल्दी ही पहुँच जायेंगे रवि।"
फोन रख दिया उन्होंने ।
अगली सुबह तीनों बैठे बातें कर रहे थे तभी दादाजी ने देखा कि घर के सामने गाड़ी आकर रुकी और उनके बेटा बहू ने आकर एकदम उन दोनों के पैर पकड़ लिये।
दादाजी ने उन को उठाकर आश्चर्य से पूछा , तुम यहाँ क्यों आये? कैसे आये?
ये सब क्या है?
बेटा हँस कर कहने लगा ," जहाँ रवि वहाँ हम । इसने तो यहाँ अस्पताल खोलने का निश्चय किया है आपकी छत्रछाया में। तो आपका आशीर्वाद लेने और इसे आशीर्वाद देने तो आना ही था न।"
दादाजी निशबद हो गये।
दादी इतने समय बाद बच्चों को देखकर भाव विह्वल हो गई थीं ।बेटे बहू को गले लगाकर रोने लगी।
बोलीं ," मेरा रवि देवदूत बन कर आया है मेरे लिये , मेरे सारे दुःख दर्द दूर हो गये आज।तुझको मेरी याद नहीं आई कभी ? माँ को भूल गया बिल्कुल ।"
बहू बोली ," नहीं, माँ को कोई कैसे भूल सकता है? अक्सर कहते थे मेरी माँ जैसा खाना कोई नहीं बना सकता । कितने बार बचपन की बातें सुनाते थे ।बस पापा के डर से हिम्मत नहीं होती थी आने की।"
दादाजी चकित हो रवि को देख रहे थे और रवि मन ही मन मुस्कुरा रहा था कि आखिर दोनों के मनों के बीच की दीवार गिराने में सफल हो ही गया ।
एक नई सुबह ने आलोकित कर दिया था , सब के मनों को।
आत्मसुधार
*आत्मसुधार*
एक बार एक व्यक्ति दुर्गम पहाड़ पर चढ़ा, वहाँ पर उसे एक महिला दिखीं, वह व्यक्ति बहुत अचंभित हुआ, उसने जिज्ञासा व्यक्त की कि *वे इस निर्जन स्थान पर क्या कर रही हैं।*
उन महिला का उत्तर था *मुझे अत्यधिक काम हैं!*
इस पर वह व्यक्ति बोला *आपको किस प्रकार का काम है, क्योंकि मुझे तो यहाँ आपके आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा।*
महिला का उत्तर था *मुझे दो बाज़ों को और दो चीलों को प्रशिक्षण देना है, दो खरगोशों को आश्वासन देना है, एक गधे को आलस्य-प्रमाद से बाहर निकालना है, एक सर्प को अनुशासित करना है और एक सिंह को वश में करना है।*
व्यक्ति बोला *पर वे सब हैं कहाँ, मुझे तो इनमें से कोई नहीं दिख रहा!*
महिला ने कहा *ये सब मेरे ही भीतर हैं।*
*दो बाज़ जो हर उस चीज पर गौर करते हैं, जो भी मुझे मिलीं अच्छी या बुरी। मुझे उन पर काम करना होगा, ताकि वे सिर्फ अच्छा ही देखें, ये हैं मेरी आँखें।*
*दो चील जो अपने पंजों से सिर्फ चोट और क्षति पहुंचाते हैं, उन्हें प्रशिक्षित करना होगा, चोट न पहुंचाने के लिए, वे हैं मेरे हाँथ।*
*खरगोश यहाँ वहाँ भटकते फिरते हैं, पर कठिन परिस्थितियों का सामना नहीं करना चाहते। मुझे उनको सिखाना होगा पीड़ा सहने पर या ठोकर खाने पर भी शान्त रहना,वे हैं मेरे पैर।*
*गधा हमेशा थका रहता है, यह जिद्दी है। मै जब भी चलती हूँ, यह बोझ उठाना नहीं चाहता, इसे आलस्य प्रमाद से बाहर निकालना है, यह है मेरा शरीर।*
*सबसे कठिन है साँप को अनुशासित करना। जबकि यह 32 सलाखों वाले एक पिंजरे में बन्द है, फिर भी यह निकट आने वालों को हमेशा डसने, काटने, और उनपर अपना ज़हर उडेलने को आतुर रहता है, मुझे इसे भी अनुशासित करना है - यह है मेरी जीभ!*
*मेरा पास एक शेर भी है, आह! यह तो निरर्थक ही घमंड करता है। वह सोचता है कि वह तो एक राजा है। मुझे उसको वश में करना है, यह है मेरा मैं।*
*तो देखा आपने मुझे कितना अधिक काम है!*
सोंचिये और विचरिये हम सब में काफी समानता है! *अपने उपर बहुत कार्य करना है, तो छोडिए दूसरों को परखना, निंदा करना, टीका टिप्पणी करना और उस पर आधारित नकारत्मक धारणायें बनाना। चलें पहले अपने उपर काम करें..!!*
बुढ़ापे की लाठी
बुढापे की लाठी
*बुढापे की लाठी*
लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है।इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापा अच्छे से कटे।
ये बात सच भी है क्योंकि बेटा ही घर में बहु लाता है।बहु के आ जाने के बाद एक बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे पर डाल देता है।
और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी।जी हाँ मेरा तो यही मनाना है वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर अपना जीवन अच्छे से व्यतीत करते हैं।
एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती।कौन कब और कैसी चाय पीते है, क्या खाना बनाना है, शाम में नाश्ता में क्या देना,रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है।अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो पूरे मन या बेमन से बहु ही देखभाल करती है।
अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चले जाएं,बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो।वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे।कोई और पूछने वाला उनके पास नही होता ।
क्योंकि बेटे के पास समय नही है,और अगर बेटे को समय मिल जाये भी तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है।
क्योंकि बेटे के चंद सवाल है और उसकी ज़िम्मेदारी खत्म...
जैसे माँ-बाबूजी को खाना खाएं,चाय पियें, नाश्ता किये, लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं।ये लगभग सभी घरों की कहानी है।मैंने तो ऐसी बहुएं देखी है जिसने अपनी सास की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी,
और ऐसे कई बहु के उदाहरण हैं!
कभी अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है, क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा,उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती हैं बुढ़ापे की असली लाठी ।
संदेश-
*"बहु" की त्याग और सेवा को पहचानिएं*
*बेटे से पहले बहु को अपना बेटा मानिएं*
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अंधकार और चिंतन
अंधकार और चिंतन
अंधकार दो प्रकार का होता है। एक रात्रि का और दूसरा विचारों का। आप कुछ भी न करें, तब भी रात्रि का अंधकार तो 10/12 घंटे में स्वयं ही हट जाता है। परंतु जो विचारों का अंधकार है, वह स्वयं नहीं हटता। उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है। चिंतन करना पड़ता है। बुद्धिमत्ता से समस्याओं को सुलझाना पड़ता है। ऐसा पुरुषार्थ करने से वह विचारों का अंधकार दूर हो जाता है।
इन दोनों में से रात्रि का अंधकार इतना खतरनाक नहीं है, जितना कि विचारों का। अतः विचारों के अंधकार से बाहर आने के लिए, ज्ञान रूपी प्रकाश को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को बुद्धिमत्ता से चिंतन अवश्य करना चाहिए, परन्तु चिंता नहीं।
चिंता और चिंतन, इन दोनों में बहुत अंतर है। चिंता समस्याओं में उलझाती है, और चिंतन समस्याओं को सुलझाता है। जब व्यक्ति चिंता करता है, अर्थात वह ऐसा सोचता है, कि अब यह समस्या आने वाली है, इस को मैं कैसे दूर करूं? मुझे कोई उपाय सूझता नहीं। मेरे पास इतने साधन नहीं हैं, कोई मेरी सहायता करने वाला नहीं है इत्यादि। इस प्रकार से जो व्यक्ति सोचता है, तो उसकी समस्या बढ़ती जाती है, हल नहीं होती। इसका नाम है चिंता करना। ऐसा करने से हानि होती है। क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता और अधिक घट जाती है। तनाव बढ़ जाता है। बुद्धि काम नहीं करती। इसलिए कोई ठीक समाधान प्राप्त नहीं होता। धीरे-धीरे व्यक्ति यदि ऐसी आदत बना ले, तो वह डिप्रैशन में भी जा सकता है। इसलिए चिंता नहीं करनी चाहिए।
चिंतन का अर्थ है, समस्या को सुलझाने के लिए गंभीरता से पूरा प्रयत्न करना। इसमें तीन बातें सोचनी चाहिएं। पहली बात यह सोचनी चाहिए, कि - समस्या क्या है? दूसरी बात यह सोचनी चाहिए, कि - इसका कारण क्या है? यह समस्या क्यों उत्पन्न हो रही है? और तीसरी बात यह सोचनी चाहिए, कि - इसका उपाय क्या है? इसको दूर कैसे करें? इस प्रक्रिया का नाम है चिंतन। चिंतन करने से, ईश्वर की कृपा से, समस्या का कोई न कोई समाधान निकल ही आता है।
यदि समाधान स्वयं प्राप्त न हो पाए, तो किसी अन्य बुद्धिमान की सलाह लेनी चाहिए, जिसका उस क्षेत्र में अधिक ज्ञान और अनुभव हो। उसकी सलाह से आपकी समस्या हल हो जाएगी, और आप स्वस्थ एवं प्रसन्न रहेंगे। इसलिए चिंता न करें, चिंतन अवश्य करें।
आत्मबोध
आत्मबोध
इस सृष्टि की रचना जितनी अद्भुत है, उससे भी अधिक सांसारिक जीवन जटिल है। आदि काल से अब तक ऋषि-मुनियों ने इसे जानने का प्रयास किया है और करते आ रहे हैं। ईश्वर ने अन्य जीवों से इतर मनुष्य नामक प्राणी बनाया। उसे ज्ञान, बुद्धि और विवेक दिया। फिर भी क्या मनुष्य अपना जीवन ठीक से जी पा रहा है? नहीं। वह यश-अपयश, दुख-सुख, मान-अपमान और जय-पराजय के बीच जीवन बिता रहा है। रात-दिन भौतिक सुख के पीछे अपनी मानसिक शांति खो रहा है। यह जानते हुए भी कि मृत्यु के बाद यह नश्वर संसार और भौतिक वस्तुएं यहीं छूट जाएंगी, फिर भी वह इनका मोह नहीं छोड़ पाता। यही कारण है कि वह अन्य जीव जंतुओं की भांति कर्मो का भोग करते हुए पुनर्जन्म को प्राप्त होता है। दुख, अवसाद, मानसिक-शारीरिक क्लेश उनका पीछा नहीं छोड़ते। इनसे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है-आत्मबोध! जब तक आत्मज्ञान नहीं होगा तब तक मनुष्य इसी प्रकार कष्ट भोगता रहेगा। ईश्वर क्या है? हम क्या हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है? आदि बातों का ज्ञान होना ही आत्मबोध है।
आत्मज्ञान हो जाने के बाद सांसारिक जीवन का मोह कम होने लगता है और मनुष्य ईश्वरोन्मुख हो जाता है। यही अध्यात्म है। इसका ज्ञान एक योग्य गुरु से प्राप्त होता है। गुरु आगे का मार्ग प्रशस्त करता है। इसके अतिरिक्त सद्ग्रंथों का अध्ययन, सत्संग और ईश्वर का ध्यान करना उपयोगी होता है। मानव जीवन का लक्ष्य है परोपकार, प्रेम, सहानुभूति, दया और प्रत्येक जीव के प्रति संवेदनशील होना। जब हमें आत्मबोध हो जाएगा तो हम सबके साथ वही व्यवहार करेंगे जैसा हम अपने प्रति चाहते हैं। ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि के प्रत्येक जीव के साथ प्रेम करना ही ईश्वर भक्ति है। ईश्वर की सृष्टि अति सुंदर है इसे बिगाड़ने की चेष्टा कदापि नहीं करनी चाहिए। जो हमें प्राप्त है उसका उचित ढंग से उपयोग करने में ही जीवन का सुख है। यदि हम एकांत में अकेले बैठकर ईश्वर से प्रार्थना करें तो निश्चित रूप से हमें आत्मबोध होगा। आत्मबोध हो जाने के बाद यह संसार निरर्थक लगने लगेगा। मन ईश्वर की ओर उन्मुख हो जाएगा, जहां परमशांति और परमानंद की प्राप्ति होगी।
विचारों की शक्ति
*विचारों की प्रचंड शक्ति*
*जो मनुष्य जैसा विचार करता है, वह ठीक वैसा ही बन जाता है*
*जिन-जिन वस्तुओं का विचार तथा चिंतन किया जाएगा, वे वस्तुएँ निश्चित रूप से हमारे समीप चली आएँगी,*
*अतः जिसे हम प्राप्त करना चाहते हैं, सदा उसी का विचार करो*
*इन्हीं विचारों में निर्मलता लाने के लिए दो महान गुणों की प्रशंसा हमारे मन में भरी पड़ी है*
*वे हैं "दया" तथा "क्षमा"*
*"दया" के विचारों से निर्मलता आती है*
*तथा "क्षमा" से निर्मलता को स्थिरता प्राप्त होती है ।*
*बिना दया तथा क्षमा का भाव रखे, किसी को कभी भी शांति प्राप्त नहीं हो सकती ।*
*"सद्विचार" तथा "सद्भाव" ही हमारी सम्पत्ति हैं*
*जिस दिन तुम्हें विचारों की शक्ति का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाएगा, उसी दिन अनेक शंकाएँ तथा समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी ।*
*अच्छे कार्य करने से भी अच्छे विचारों की संस्कारवर्धक शक्ति अधिक तीव्र होती है ।*
*जैसी बातें मनुष्य विचारेगा, कुछ समय के पश्चात वह स्वयं देखेगा कि उसके विचारों के अनुकूल ही उसका वातावरण बनता जा रहा है ।*
*जिन-जिन परिस्थितियों व वस्तुओं का उसने चिंतन किया है, वे उसके अधिकाधिक समीप आ पहुँचती है ।*
*मनुष्य अपने विचारों से ही "उच्च" तथा "निम्न" बनता है ।*
*"विचार" ही कार्य की प्रेरक शक्ति है , "विचार" तथा "कर्म" का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है*
स्वयं-विचार-करें
मनुष्य का शत्रु
मनुष्य का शत्रु आलस्य
किसी भी कार्य की सिद्धि में आलस्य सबसे बड़ा बाधक है, उत्साह की मन्दता प्रवृत्ति में शिथिलता लाती है। हमारे बहुत से कार्य आलस्य के कारण ही सम्पन्न नहीं हो पाते। दो मिनट के कार्य के लिए आलसी व्यक्ति फिर करूंगा, कल करूंगा-करते-करते लम्बा समय यों ही बिता देता है। बहुत बार आवश्यक कार्यों का भी मौका चूक जाता है और फिर केवल पछताने के आँतरिक कुछ नहीं रह जाता।
हमारे जीवन का बहुत बड़ा भाग आलस्य में ही बीतता है अन्यथा उतने समय में कार्य तत्पर रहे तो कल्पना से अधिक कार्य-सिद्धि हो सकती है। इसका अनुभव हम प्रतिपल कार्य में संलग्न रहने वाले मनुष्यों के कार्य कलापों द्वारा भली-भाँति कर सकते हैं। बहुत बार हमें आश्चर्य होता है कि आखिर एक व्यक्ति इतना काम कब एवं कैसे कर लेता है। स्वर्गीय पिताजी के बराबर जब हम तीन भाई मिल कर भी कार्य नहीं कर पाते, तो उनकी कार्य क्षमता अनुभव कर हम विस्मय-विमुग्ध हो जाते हैं। जिन कार्यों को करते हुए हमें प्रातःकाल 9-10 बज जाते हैं, वे हमारे सो कर उठने से पहले ही कर डालते थे।
जब कोई काम करना हुआ, तुरन्त काम में लग गये और उसको पूर्ण करके ही उन्होंने विश्राम किया। जो काम आज हो सकता है, उसे घंटा बाद करने की मनोवृत्ति, आलस्य की निशानी है। एक-एक कार्य हाथ में लिया और करते चले गये तो बहुत से कार्य पूर्ण कर सकेंगे, पर बहुत से काम एक साथ लेने से- किसे पहले किया जाय, इसी इतस्ततः में समय बीत जाता है और एक भी काम पूरा और ठीक से नहीं हो पाता। अतः पहली बात ध्यान में रखने की यह है कि जो कार्य आज और अभी हो सकता है, उसे कल के लिए न छोड़, तत्काल कर डालिए, कहा भी है-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब॥
दूसरी बात ध्यान में यह रखनी है कि एक साथ अधिक कार्य हाथ में न लिये जायं, क्योंकि इससे किसी भी काम में पूरा मनोयोग एवं उत्साह नहीं रहने से सफलता नहीं मिल सकेगी। अतः एक-एक कार्य को हाथ में लिया जाय और क्रमशः सबको कर लिया जाय अन्यथा सभी कार्य अधूरे रह जायेंगे और पूरे हुए बिना कार्य का फल नहीं मिल सकता। जैन धर्म में कार्य सिद्धि में बाधा देने वाली तेरह बातों को तेरह काठियों (रुकावट डालने वाले) की संज्ञा दी गई है। उसमें सबसे पहला काठिया ‘आलस्य’ ही है। बहुत बार बना बनाया काम तनिक से आलस्य के कारण बिगड़ जाता है।
प्रातःकाल निद्रा भंग हो जाती है, पर आलस्य के कारण हम उठकर काम में नहीं लगते। इधर-उधर उलट-पुलट करते-करते काम का समय गंवा बैठते हैं। जो व्यक्ति उठकर काम में लग जाता है, वह हमारे उठने के पहले ही काम समाप्त कर लाभ उठा लेता है। दिन में भी आलसी व्यक्ति विचार में ही रह जाता है, करने वाला कमाई कर लेता है। अतः प्रति समय किसी न किसी कार्य में लगे रहना चाहिए। कहावत भी है ‘बैठे से बेगार भली’। निकम्मे आदमी में कुविचार ही घूमते हैं। अतः निकम्मेपन को हजार खराबियों की जड़ बतलाया गया है।
मानव जीवन बड़ा दुर्लभ होने से उसका प्रति क्षण अत्यन्त मूल्यवान है। जो समय जाता है, वापिस नहीं आता। प्रति समय आयु क्षीण हो रही है, न मालूम जीवन दीप कब बुझ जाय। अतः क्षण मात्र भी प्रमाद न करने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। महात्मा गौतम गणधर को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उत्तराध्ययन-सूत्र में ‘समयं गोयम मा पमायए’ आदि- बड़े सुन्दर शब्दों में उपदेश दिया है। जिसे पुनः-पुनः विचार कर प्रमाद का परिहार कर कार्य में उद्यमशील रहना परमावश्यक है। जैन दर्शन में प्रमाद निकम्मे पन के ही अर्थ में नहीं, पर समस्त पापाचरण के आसेवन के अर्थ में है। पापाचरण करके भी जीवन के बहुमूल्य समय को व्यर्थ ही न गंवाइये।
आलस्य के कारण हम अपनी शक्ति से परिचित नहीं होते- अनन्त शक्ति का अनुभव नहीं कर पाते और शक्ति का उपयोग न कर, उसे कुँठित कर देते हैं। किसी भी यन्त्र एवं औजार का आप उपयोग करते रहते हैं तो ठीक और तेज रहता है। उपयोग न करने से पड़ा-पड़ा जंग लगकर बरबाद और निकम्मा हो जाता है। उसी प्रकार अपनी शक्तियों को नष्ट न होने देकर सतेज बनाइये। आलस्य आपका महान शत्रु है। इसको प्रवेश करने का मौका ही न दीजिए एवं पास में आ जाए तो दूर हटा दीजिए। सत्कर्मों में तो आलस्य तनिक भी न करे क्योंकि “श्रेयाँसि बहु विघ्नानि” अच्छे कामों में बहुत विघ्न जाते हैं। आलस्य करना है, तो असत् कार्यों में कीजिए, जिससे आप में सुबुद्धि उत्पन्न हो और कोई भी बुरा कार्य आप से होने ही न पावे।
सज्जन और दुर्जन में भेद
"संसार में सब प्रकार के लोग होते हैं। कुछ सज्जन होते हैं और कुछ दुर्जन।"
सामान्य रूप से तो प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को समाज में 'सज्जन' के रूप में ही प्रस्तुत करता है। "वह स्वयं को बहुत अच्छा बुद्धिमान धार्मिक सदाचारी चरित्रवान ईमानदार ईश्वरभक्त देशभक्त आदि के रूप में प्रस्तुत करता है।" "परंतु जैसे जैसे उसका व्यवहार सामने आता है, वैसे वैसे लोग उसका नाटक पहचानने लगते हैं, और धीरे-धीरे दूसरों को पता चल जाता है, कि यह सज्जन है या दुर्जन!" यह तो हुई सामान्य परिस्थितियों की बात।
परन्तु विशेष परिस्थिति में जब कोई व्यक्ति आपत्ति में फंस जाता है, उसके जीवन में कोई विशेष कठिनाई आ जाती है, "जैसे उसको व्यापार में घाटा हो गया, भूकंप में उसका मकान गिर गया, किसी ने झूठा आरोप लगाकर उसे बदनाम कर दिया, कहीं दुर्घटना में पत्नी या बेटे का अवसान हो गया आदि आदि।" "इस प्रकार की किसी भी आपत्ति की चपेट में जब कोई व्यक्ति आ जाता है, तब वह उन लोगों से सहायता मांगता है, जो लोग सामान्य परिस्थितियों में अपने आप को बहुत अच्छा 'देवता' के रूप में प्रस्तुत करते थे।" अब इस आपत्ति काल में उन सारे देवता दिखने वाले लोगों की परीक्षा हो जाती है, कि "वे कितने सज्जन हैं और कितने दुर्जन? कितने सहयोगी हैं, और कितने स्वार्थी!"
सामान्य परिस्थितियों में यदि कोई व्यक्ति अपने आप को बहुत अच्छा/सज्जन के रूप में प्रस्तुत करता था, और अपने मित्र के आपत्ति काल में वह कुछ भी उसका सहयोग नहीं करता, तो आप समझ जाएंगे, कि "यह अच्छा व्यक्ति नहीं है, यह कोई देवता नहीं है, बल्कि दिखावा करने वाला, स्वार्थी और दुर्जन है।"
यदि वह अपने मित्र के आपत्तिकाल में सहयोग करता है, तो समझ लीजिए, कि "वह वास्तव में सज्जन है, ईमानदार है, ईश्वरभक्त है, देशभक्त है, चरित्रवान है, बुद्धिमान है, और सच्चा आस्तिक है।" ऐसे लोगों के साथ ही संबंध रखना चाहिए।
अनेक बार व्यक्ति को पता होता है कि "मेरा मित्र आपत्ति में है, और इसे सहायता की आवश्यकता है। "मैं जितना धन इसे पहले सहायता में दे चुका हूं, वह भी मुझे वापस नहीं मिलेगा। अब यह और धन मांग रहा है। अब यदि मैं इसे और धन दूं, तो इसके भी वापस लौटने की कोई आशा नहीं है।" "ऐसी परिस्थिति में भी जब कोई उदार व्यक्ति, अपने मित्र की धन आदि देकर सहायता करता है, तो वह तो 'साक्षात देवता' है। वही वास्तव में सज्जन है, ईश्वर भक्त है, धार्मिक है, चरित्रवान है, ऐसा समझना चाहिए।"
"और दूसरी तरफ -- जो अपने ऊपर उपकार करने पर भी दूसरे व्यक्ति का उपकार न माने, वह तो 'दुर्जन' है ही। इसमें क्या सन्देह? अर्थात कोई सन्देह नहीं है।"
काम की बात पार्ट 4
आधुनिक इंसान की सोच
अपने कुछ लाभ के लिये
नजदीकी क्षेत्र के जंगलों को
कटवा देने वाला इंसान
नैनीताल /मंसूरी /शिमला आदि
जगह
जाकर जंगलों के गुण बताकर अपने दोष छिपाता है
दोष किसका आधुनिकरण का
या इंसान की मानसिकता का 🤔
सोच बदलो समाज बदलेगा
ॐ नमो---///----
🌹
मैढ़ स्वर्णकार रिश्ते के साथ मैढ़ स्वर्णकार ट्रस्ट की जरूरत क्यो?
*आवश्यक सन्देश*
17/06/2022
विषय - *मैढ़ स्वर्णकार रिश्ते के साथ मैढ़ स्वर्णकार ट्रस्ट की जरूरत क्यों पड़ी*
आदरणीय जैसा कि आप सभी जानते है बीते वर्षो से मैढ़ स्वर्णकार रिश्ते समाज बुजुर्ग बन्धुओ के आशीर्वाद सक्षम बन्धुओ के सहयोग से समाजहित में प्रयासरत है इसके नाम को लेकर कुछ
बन्धु का मानना है कि
ये वैवाहिक संगठन है जिसका उद्देश्य समाज मे बायोडेटा का प्रचार /परिचय समेलन की जानकारी तक सीमित है
जबकि सच्चाई ये है कि मैढ़ स्वर्णकार रिश्ते के तीन शब्द स्वयं समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बताने के लिये काफी है ऐसे में केवल बायोडेटा /परिचय सम्मेलन तक कैसे सीमित हो सकते है
इसलिये हमने बीते वर्षो के अनुभव से
अब मैढ़ स्वर्णकार ट्रस्ट को बनाना अनिवार्य समझा क्योकि इसमे समाज
के सहयोग और मार्गदर्शन से
समाजहित में जरूरतमंद बन्धुओ हेतु
यथा सम्भव मदद /प्रयास हो सकेगा
समाजहित में आप समाजहित
योजना /विचार की जानकारी हमे
9034664991 नम्बर पर भेज सकते है
ध्यान रखे आप पूर्व में सहयोगी रहे हो
या विरोधी इस ट्रस्ट में सभी का स्वागत
होगा बशर्ते शब्द और भाषा मर्यादित
रखे तथा समाजहित में सहयोग
की भावना हो
धन्यवाद
🌹🙏🏻🌹
आपका अपना
महेश कुक्कस (कुकरा)
हांसी (हरियाणा)
9034664991
9728093797
सम्पर्क समय-11am to 7pm
काम की बात , पार्ट -1
काम की बात , पार्ट 1
हमारा मानना है देश मे चलने
वाले बहुत से नोट (रुपये) मुद्रा
नही है
बल्कि ये एक रसीद (विश्वास)
मात्र है
जिन पर लिखा होता है
मैं धारक को इतने रुपये अदा
करने का वचन देता हूं
सोचिये अगर ये लाइन नोट पर
लिखी गई है तब इसका उद्देश्य
क्या है मतलब यही की इस पर
लिखी ये लाइन और रिजर्व बैंक
अधिकारी के हस्ताक्षर सिद्ध
करते है कि इन्होंने उस रसीद
के बदले रुपये अदा करने का
वचन दिया है जिस किसी के
पास जितने रुपये का नोट होगा
उसके बदले में आप हम समान
खरीद बेच सकते है और
जरूरत अनुसार एक दूसरे से
या बैंकों से लेन देन कर सकते
है
कल को भारत सरकार अगर
चाहे तो पहले कि भांति घोषणा
कर तय समय सीमा में आपके
रुपये वाले नोट बैंकों में जमा
करवा सकती है और जो कोई
सरकार द्वारा तय समय सीमा
में उस नोट को ना तो बैंकों में
जमा करवाएगा और ना ही
अन्य माध्यम से बदलवा पायेगा
उस व्यक्ति के पास जितने भी
रुपये वाले वो नोट होंगे जिन्हें
सरकार ने बैन किया हो वो सब
रद्दी मात्र रह जाएंगे
ऐसा क्यो होता है ऐसा इसलिये
होता है ताकि सरकार देश मे
चल रहे नकली नोटों पर अंकुश
लगा सके या सरकार को उन
नोटो से अन्य किसी प्रकार
खतरा नजर आता हो जैसे कि
जमा खोरी /भृष्टाचार के
माध्यम अपराधी परवर्ती के
लोगो के पास इकट्ठा किये गए
नोट हो
अगर ये नोट मुद्रा नही तो फिर
किस नोट को आप मुद्रा कह
सकते है
हमारा मानना है जिस नोट पर
मैं धारक को इतने रुपये अदा
करने का वचन देता हूं ये लाइन
नही लिखी हो
नोट पर रिजर्व बैंक अधिकारी
के हस्ताक्षर नही बल्कि भारत
सरकार के वित्त सचिव के
हस्ताक्षर किए गए हो उस नोट
को आप हम मुद्रा कह सकते है
क्योकि उस नोट की गरेन्टी
आपको बैंक नही बल्कि भारत
सरकार देती है
वर्तमान में आप सबने देखा
होगा कि एक दो पांच रुपये के
नोट बेहद कम चलन में है
लेकिन फिर भी जिन नोट पर
वित्त मंत्री के हस्ताक्षर हो उन
नोट को भारत सरकार लेने से
मना नही कर सकती बेसक
कल को रिजर्व बैंक दिवालिया
क्यो न हो जाए
बैंक सरकार नही केवल सरकार
की मान्यता प्राप्त एक संस्था है
जिसका उद्देश्य नोट छापने से
अन्य बहुत से कार्य होते है जैसे
कर्ज पर रुपया देना हो देश में
बढ़ती /घटती महंगाई को
नियंत्रित करना आदि होते है
अगर भारत सच मे आजाद देश
है तब तो भारत सरकार को
चाहिये कि ऐसे नोट जारी करे
जिन पर वित्त मंत्री के हस्ताक्षर
हो और मैं धारक को ---रुपये
अदा करने का वचन नही दिया
गया हो
हम नही जानते भारत सरकार
इसको करने में कितनी सक्षम
है लेकिन हमारा मानना है देश
में नोटो के नामपर भृमजाल
नही बल्कि सरकार से गारेंटी
प्राप्त नॉट जारी होने चाहिये
जिन्हें मुद्रा कहा जा सके
आज के लिये इतना ही बाकी
फिर कभी
धन्यवाद
ॐ नमो ---///----
🌹
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